झूमर
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 1
झूमर को कोर्ट के फैसले की कॉपी बड़ी दौड़-धूप के बाद शाम करीब चार बजे मिल पाई थी। उसने अपने वकील श्यामल कांत श्रीवास्तव को तब धन्यवाद दिया था। साथ ही वकील साहब की घुमा-फिरा कर कही जा रही तमाम बातों का आशय समझते हुए पहले से तय फीस के अलावा पांच हज़ार रुपए और दिए थे। रुपए मिलने की खुशी वकील साहब के चेहरे पर दिख रही थी। मुंह में पान भरे उनका मुंशी अजीब सी आवाज़ में यह कहना ना भूला कि ‘अरे! जिन मामलों का फैसला आने में आठ-दस वर्ष लग जाते हैं हमारे वकील साहब ने चार वर्ष में ही करा लिया।’ झूमर भी इस बात से सहमत थी। क्योंकि शुरू में ही जिसने भी इस केस के बारे में जाना उसने यही कहा ‘यह तो शायद अपनी तरह का पहला केस है। इसका फैसला आना आसान नहीं होगा। दस-पंद्रह वर्ष लग जाएं तो आश्चर्य नहीं।’
फैसले की कॉपी लेकर जब वह घर चलने को हुई तो वकील ने यह कह कर केस जीतने की उसकी खुशी को ठंडा कर दिया कि ‘सारे पेपर्स बहुत संभाल कर रखिएगा। हो सकता है अगेंस्ट पार्टी अपर-कोर्ट में अपील करे। लेकिन आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। आपका केस तो लोअर-कोर्ट में जीतने के बाद और भी स्ट्रॉन्ग हो गया है। अब वो किसी भी कोर्ट में जाए जीतने का तो सवाल ही नहीं उठता।’
झूमर ने कहा ‘जी ठीक है, पेपर्स संभाल कर रखूंगी।’ इसके बाद वह उन्हें नमस्कार कर अपना बैग उठा कर चल दी। स्टैंड पर अपनी ऐक्टिवा स्कूटर के पास पहुँच कर सीट खोली, उसमें से हेलमेट निकाल कर पहना और बैग, फाइलें उसी में रख दीं। स्टैंड वाले को टोकन और पैसा देकर घर को चल दी। कोर्ट से घर वृंदावन कॉलोनी पहुंचने में उसे बीस-पचीस मिनट लग गए। उसने गेट खोला तो सामने ही कुछ लेटर्स पड़े हुए थे। जो इंश्योरेंस कंपनी के थे और अकसर आते रहते हैं। उन्हें उठा कर उसने कमरे का दरवाजा खोला और ड्रॉइंगरूम में पहुंची, फिर कूलर, पंखा दोनों ऑन करके सोफे पर आराम से बैठ गई। दुपट्टे को चेहरे से खोल कर अलग रख दिया।
स्कूटर चलाते समय वह दुपट्टे से चेहरे को ढंक कर इस तरह बांध लेती थी कि सिर्फ़ आंखें ही दिखती थीं। इससे धूल-धूप दोनों से बच जाती थी। चेहरे को दुपट्टे से इस तरह बांधने का चलन शुरू तो हुआ फैशन के तौर पर लेकिन इससे चेहरे की सुरक्षा बड़े अच्छे से होती है। झूमर जब रास्ते में थी तभी उसकी बेटी अंशिका का फ़ोन आया था कि वह कोचिंग जा रही है। वह इंटर के बाद से ही कॉम्पटीशन की तैयारी में लग गई थी। साथ ही लखनऊ युनिवर्सिटी में बी.एस.सी. में उसका ऐडमिशन भी हो गया था। कोचिंग, युनिवर्सिटी वह टाइम से पहुंच सके इसके लिए उसने अंशिका को भी ऐक्टिवा स्कूटर ही दिला दी थी। लड़कियों और महिलाओं की पसंदीदा स्कूटरों में इसकी गिनती होती है।
मां-बेटी दोनों एक दूसरे को जी-जान से प्यार करती हैं, इसलिए हमेशा मोबाइल के जरिए संपर्क में बनी रहती हैं। अंशिका ने फ़ोन पर झूमर को यह भी बताया था कि उसने उनके लिए नाश्ता बना कर फ्रिज में रख दिया है। उसे वह खा लेंगी। सोफे पर सिर पीछे टिकाए झूमर सुस्ताने लगी थी। कूलर की ठंडी हवा उसे बड़ी राहत दे रही थी। उसने आंखें बंद कर रखी थीं। दिनभर कोर्ट में दौड़ धूप करते-करते वह पस्त हो चुकी थी। प्यास से गला सूख रहा था लेकिन फ्रिज से पानी लेकर पीने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी।
उसकी आंखों के सामने से पूर्व पति वैभव का चेहरा हट नहीं रहा था। वह पति जिसे वह प्राणों से ज़्यादा चाहती थी। जिसके लिए दिल में अब भी कहीं एक कोना बना हुआ है। चाह कर भी उसे हटा नहीं पा रही थी। जब कि उसने कोर्ट में उसे बदचलन, आवारा, बदमाश साबित करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए। कैसे-कैसे घिनौने आरोप लगाए और उन्हें साबित करने के लिए ऊल-जलूल प्रमाण पेश किए। कैसे एक से बढ़ कर एक जलील, शर्मसार कर देने वाले प्रश्न खड़े किए। जिससे कई बार महिला जज भी नाराज हो जाती थी।
यह सब सिर्फ़ इस लिए किया जिससे उसे झूमर को गुजारा भत्ता या उसके जो हक हैं वह ना देने पड़ें । इस स्वार्थ में नीचता की इस हद तक गिर गया कि अपनी बेटी को ही अपनी मानने से इंकार कर दिया। केस को उलझा कर और लंबा खींचने की गरज से बेटी के डी.एन.ए. टेस्ट की मांग कर दी। लेकिन भला हो जज का जिसने यह कहते हुए इस मांग को ठुकरा दिया कि इसका कोई औचित्य नहीं बनता। क्योंकि पति-पत्नी के अलगाव के चार-पांच महीने बाद ही बच्चे का जन्म हुआ। उसके पहले दोनों पति-पत्नी साथ रहते थे। उनके बीच शारीरिक संबंध कायम थे। फैसले के बाद जब वह अपने वकील के साथ बाहर निकली थी तो सामने से ही निकल रहे वैभव से उसकी आंखें मिल गई थीं। जहां उसे अपने लिए घृणा की ज्वाला दिख रही थी।
कूलर की ठंडी हवा से उसके तन का पसीना ज़रूर सूख रहा था। लेकिन उसकी आंखें भर रही थीं। इसलिए बंद आंखों की कोरों से आंसू की लकीरें गालों से नीचे तक बनती जा रही थीं। चार साल कोर्ट के चक्कर लगाने में उसने जो जलालत, तकलीफ झेली वह उसे एक-एक कर याद आ रही थीं। वकील की आखिर में कही यह बात उसे बेचैन किए जा रही थी कि ‘अगेंस्ट पार्टी अपील कर सकती है।’
वैभव ने यदि अपील कर दी तो ना जाने कितने बरस फिर धक्के खाने पड़ेंगे। कितनी जलालत, तकलीफ फिर झेलनी पड़ेगी। ऐसे में एक बार फिर उसे अपने एक रिश्तेदार का बार-बार कहा जाने वाला एक जुमला याद आ गया। जो शुरुआती दिनों में उसके और वैभव के बीच समस्या के समाधान के लिए मध्यस्थता कर रहे थे। और मामले को कोर्ट में ले जाने से मना करते हुए कहते थे कि ‘अदालत कहती घुस के देख, मकान कहता छू के देख।’ फिर कैलाश गौतम की ‘कचेहरी’ कविता की यह लाइन कोट करते कि ‘कचेहरी बेवा का तन देखती है, खुलेगी कहां से वह बटन देखती है।’
झूमर के मन में आया कि इन बातों में सच ही सच तो है। जब उसने यह मकान बनवाना शुरू किया था तो काम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। और कोर्ट में वकील से लेकर पेशकार, बाबू, टाइपिस्ट, चपरासी ऐसा कौन था जो एक-एक पैसा निचोड़ लेने में नहीं लगा था। और वकील! वह तो सबसे चार कदम और आगे था। वह कितनी सख्त बनी रहती थी तो भी कुछ ना कुछ अश्लील बातें कर ही देता था। आए दिन घर तक छोड़ देने की बात कहना नहीं भूलता था। हर बार रूखा जवाब मिलने के बाद ही उसने यह सब बंद किया था।
यह मुश्किलें उसे कई बार तोड़ कर रख देती थीं। मगर अंततः वह अपने को बचा पाने में सफल रही। उसने अपनी बटन तक कचेहरी के हाथों को पहुंचने से रोक दिया था। वह बेवा नहीं थी लेकिन परित्यकता तो थी ही, अकेली। इसके चलते कचहेरी ने अपनी आंखें, हाथ उसके तन तक पहुंचाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।
प्यास से गला जब ज़्यादा ही सूखने लगा तो उसने उठ कर फ्रिज से ठंडी बोतल निकाली। अंशिका द्वारा बनाया गया बेसन का चिला, टोमेटो केचप और चिली सॉस लेकर फिर सोफे पर बैठ गई। चिला को गर्म करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। पहले उसने थोड़ा सा पानी पी कर गला तर किया। फिर नाश्ता किया। तभी अंशिका का फ़ोन फिर आया कि वह कोचिंग से थोड़ा देर से निकलेगी। इसलिए आते-आते आठ बज जाएंगे। वह परेशान ना हों।
झूमर ने जहां तक हो सका था अंशिका को कोर्ट के मामलों से दूर ही रखा था। पति अपने बीच की बातों से भी ज़्यादा परिचित नहीं कराया था। अपने पिता के बारे में अंशिका के प्रश्नों का वह यही जवाब देती थी कि ‘बेटा हम दोनों के नेचर ज़रा भी नहीं मिलते, इसीलिए एक नहीं रह सके। जिससे रोज-रोज के झगड़े से एक दूसरे को परेशान ना करें, किसी को कोई नुकसान ना पहुंचाए।’
नाश्ता करने के बाद झूमर ने सोफे पर कुशन को ही तकिए की तरह सिर के नीचे लगा लिया और लेट गई। अगेंस्ट पार्टी अपील कर सकती है वकील की यह बात अब भी उसे कानों में गूंजती लग रही थी। लेटने पर उसे आराम मिला तो उसकी आंख लग गई। वह सोती रही तब तक, जब तक कि कॉलबेल की तेज़ आवाज़ टिंगटांग ने उसकी नींद तोड़ नहीं दी। आंख खुलते ही उसने सामने दीवार पर लगी घड़ी पर नज़र डाली तो साढ़े आठ बज रहे थे।
झूमर जल्दी से उठ कर बाहर गई और गेट खोला, सामने अंशिका थी। उसने देखते ही कहा ‘क्या मम्मी कितनी देर से घंटी बजा रही हूं, आप हैं कि सुन ही नहीं रही हैं।’ झूमर ने कहा ‘हां बहुत थक गई थी। कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।’ मां-बेटी दोनों अंदर आईं। झूमर अब भी बहुत थकान महसूस कर रही थी इसलिए अलसाई सी फिर सोफे पर बैठ गई। अंशिका ने अपना बैग, हेलमेट, मोबाइल टेबिल पर रखा।
मां की हालत देख कर वह जान गई थी कि आज फिर इनका मूड सही नहीं है। और खाना-पीना कुछ नहीं बना है। आते वक्त वह चार समोसे खरीद कर ले आई थी। उसने चारो समोसे एक प्लेट में मां के सामने रखे। कहा ‘मम्मी खाइए, मैं चाय बना कर लाती हूं।’ एक समोसा खुद लेकर उसे खाते हुए चाय बनाने किचेन में चली गई। मां-बेटी ने समोसा, चाय खाने-पीने के बाद करीब घंटे भर तक टी.वी. देखा। इसके बाद अंशिका ने कपड़े चेंज किए और खाना बनाया। मां-बेटी खा-पीकर ग्यारह बजे तक बेड पर पहुंच गईं।
अंशिका ने कुछ देर मोबाइल पर मेल वगैरह चेक की, व्हाट्सएप पर मित्रों को कुछ मैसेज वगैरह भेजे फिर मोबाइल ऑफ कर सो गई। मां-बेटी दोनों सोते समय मोबाइल ऑफ कर देती हैं। रात में अक्सर आने वाली अंड-बंड कॉलों के कारण ही दोनों ऐसा करती थीं। झूमर कुछ देर तो आँखें बंद किए पड़ी रही, लेकिन नींद नहीं आई तो उठ कर बेड के सिरहाने की ऊंची पुश्त का सहारा लेकर बैठ गई। पीछे तकिया लगा ली थी।
शाम को करीब तीन घंटे सो लेने के कारण उसकी आंखों से नींद कोशों दूर हो गई थी। कोर्ट का फैसला उसे और उलझाए था। जबकि फैसला पूरी तरह उसके पक्ष में था कि बेटी अंशिका का डी.एन.ए. टेस्ट नहीं होगा। पति को गुजारा भत्ता देना होगा। उसकी प्रापर्टी में भी झूमर का आधा हिस्सा होगा।
झूमर सोचने लगी कि उसने वकील के कहने पर डी.एन.ए. टेस्ट से इंकार करके गलती की है। टेस्ट कराना ही अच्छा था। इससे वैभव ने दोस्तों और रिश्तेदारों में जो उसके बदचलन होने, अंशिका को अपनी संतान मानने से इंकार कर, उसे जो झूठा बदनाम कर रखा है, इससे उसका झूठ सबके सामने आ जाता। इंकार करके तो वैभव के झूठ को उसने सब के सामने सच बना दिया। ना जाने इस वकील ने ऐसा क्यों किया? उसे पिछले दिनों मीडिया में छाए उस केस की याद आ गई जिसमें एक महिला दो-ढाई दशक बाद एक नामचीन बड़े राजनेता का डी.एन.ए. टेस्ट कराकर यह प्रमाणित कर देती है कि वह नेता ही उसके बेटे का पिता है। जो कई प्रदेशों के राज्यपाल, मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सच सामने आने के बाद उस नेता ने बुढ़ापे में अंततः उससे विधिवत शादी भी की।
झूमर के मन में यह कुलबुलाहट बढ़ने लगी कि काश टेस्ट कराती। लेकिन अब वह क्या कर सकती है। बाजी तो हाथ से निकल चुकी है। बड़ी देर तक उलझन में पड़ी वह बैठी रही। उसे प्यास लगी तो उसने साइड स्टूल की तरफ देखा वहां गिलास, पानी की बोतल दोनों ही नहीं थे। अंशिका रखना भूल गई थी। वह उठ कर किचेन में गई, फ्रिज से पानी निकाल कर पिया। लाकर स्टूल पर भी रखा फिर पूर्ववत् अपनी जगह पर बैठ गई। उसने एक नज़र अंशिका पर डाली, वह गहरी नींद में सो रही थी। स्लीपिंग ड्रेस पहने सो रही अपनी बेटी पर उसकी नज़र ठहर सी गई। देखते-देखते वह अठारह की हो चुकी थी।
लंबाई में अपनी मां से भी दो-ढाई इंच ऊपर निकल पांच फिट सात इंच की हो गई थी। चेहरा-मोहरा बनावट बिल्कुल मां पर गई थी। मगर रंग पूरी तरह से पिता पर। एकदम दुधिया गोरा। मां की तरह गेंहुआ नहीं। हां बाल मां की तरह खूब घने काले, लंबे थे। कमर से नीचे तक लंबे बालों की वह संभाल कर देख-भाल करती थी। झूमर ने कई बार कहा भी कि कॉलेज, कोचिंग पढ़ाई के लिए इधर-उधर जाना रहता है। बालों को संवारने में टाइम लगता है, इन्हें कटवा कर छोटा करा लो तो आसानी रहेगी। लेकिन उसने हर बार मना कर दिया तो झूमर ने उससे कहना बंद कर दिया था।
झूमर ने बगल में सो रही बेटी के सिर पर बड़े प्यार, स्नेह से हाथ फेरा और सिर झुका कर माथे और बालों की मिलन रेखा पर हौले से चूम लिया। उसकी आंखें भर आई थीं। उसने मन ही मन कहा वैभव सच में तुमसा अभागा बाप दूसरा नहीं होगा। इतनी होनहार प्यारी सी बिटिया को तुमने बचपन से ही दुत्कार दिया। हद तो यह कर दी कि अपनी संतान को संतान कहने से मना कर दिया, महज एक औरत और प्रापर्टी के लिए मेरी और मेरी बच्ची की ज़िंदगी बरबाद कर दी।
जीवन से अलग किया भी तो अन्य तमाम घिनौने विचारों वाले लोगों की तरह मुझे बदचलन कह कर। जबकि अच्छी तरह जानते हो कि बदचलनी के रास्ते पर मैं अब तक कभी चली ही नहीं। तुमने एक मासूम बच्ची से जिस तरह उसके पिता का सुख छीना है। लोगों के सामने आए दिन उसे, मुझे जिस तरह अपमान झेलना पड़ता है उसके लिए कभी ईश्वर तुम्हें माफ नहीं करेगा। मैं शुरू के दिनों में अपने भाग्य पर गर्व करती थी, इठलाती थी कि मैंने तुम जैसा आइडियल हसबैंड पाया है। मगर तुम्हारा असली रूप चार साल बाद दिखा। तब तक मैं ना इधर की रही ना उधर की। झूमर के मन में बीती बातें एक-एक कर उमड़ती जा रही थीं। उसका मन कसैला होता जा रहा था। पति के लिए अप्रिय शब्द मन में चल रहे थे।
मन ही मन उसने कहा ‘वैभव वास्तव में तुम्हारे जैसे शातिर आदमी को सिर्फ़ मेरी दीदी ही पहचान पाई थीं। उन्होंने सगाई से एक दिन पहले ही दबे मन ही से सही साफ कहा था कि ‘‘झूमर पता नहीं क्यों मेरा मन कहता है कि यह ठीक नहीं है। यह अच्छा आदमी नहीं लग रहा।’’ मगर तब तक मुझे देखने। बातचीत करने आदि के चलते तुम अपने परिवार के साथ चार-पांच बार आ चुके थे।
घर आने आदि के चलते चार-पांच बार तुमसे मिल चुकी थी, बातचीत कर चुकी थी। ना जाने ऐसा क्या हो गया था कि मैं शादी से पहले ही तुम्हें टूट कर चाहने लगी थी। कैसे-कैसे रंगीन सपनों में खोई रहती थी। शादी की रस्म से पहले ही पति मान चुकी थी। तब यह नहीं मालूम था कि जिसे इतना चाह रही हूं, इतना मान रही हूं, वही एक दिन बदचलन कह कर दुत्कार भी देगा।
तुम्हें दरअसल तब बड़ी बहन को छोड़ कर मां-बाबू, मंझली दीदी बाकी सबने भी ठीक कहा था। सब धोखे में आ गए थे कि लड़का बहुत सज्जन और सुंदर है। अच्छी नौकरी भी है। और इन सबसे पहले यह कि उस समय घर की आर्थिक हालत बुरी तरह डावांडोल थी। एक तरह से घर मुझ पर ही निर्भर था। शादी के लिए सारा पैसा मेरी ही कमाई से इकट्ठा हुआ था।’ झूमर को वह समय याद आ रहा था। जब दोनों बहनों की शादी में इतना कर्ज हो चुका था कि उसके बाबू जी बरसों तक उसे ही पूरा करते रहे।
फिर यह सोच कर भाई की शादी की गई कि जो कैश मिलेगा उससे उसकी शादी में कुछ राहत मिलेगी। लेकिन शादी से पहले सीधा-सादा दिखने वाला भाई शादी के पहले दिन ही बीवी को देख कर ऐसे बदला कि पूरे घर को जैसे सांप सूंघ गया। उसकी बीवी ने अगले ही दिन अपनी सत्ता का झंडा बुलंद कर दिया था। और भाई उसका सेनापति बन उसके पीछे-पीछे चल रहा था। स्थितियां इतनी बिगड़ीं कि एक हफ्ते बाद ही वह किराए का मकान लेकर अलग रहने लगा। उसके सहारे कर्ज से राहत पाने की जो बात सोची गई थी वह राहत मिलने की तो दूर कर्ज और बढ़ गया।
उसके इस रुख से तब झूमर के मां-बाबू के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी। इसके बाद घर का खाना खर्च भी मुश्किल हो गया था। बाबू जी की तनख्वाह मिलने के हफ्ते भर पहले से ही तगादेदार दरवाजा खट-खटाने लगते थे। जब घर का चूल्हा जलना भी मुश्किल हो गया था तब झूमर ने खुद काम-धाम ढूंढने की कोशिश की थी। ट्यूशन भी पढ़ाने की सोची मगर उससे कुछ खास बन नहीं पा रहा था।
भाई की शादी के साल भर भी नहीं बीते थे कि उसके बाबू जी के रिटायरमेंट का वक्त आ गया। हालात और बदतर हो गए। कर्ज अब भी लाखों में बाकी था। भाई की शादी के बाद झूमर की शादी का जो सपना था उसके मां-बाबू जी का वह चूर-चूर हो गया था। झूमर की शादी भी हो पाएगी, उन्हें इसकी कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी। देखते-देखते उसके मां-बाबू जी को तरह-तरह की बीमारियों ने जकड़ लिया। वह दोनों जरा-जरा सी बात पर रो पड़ते। अपने दामादों के हाथ जोड़ते कि हम लोगों के न रहने पर झूमर की शादी किसी तरह करा देंगे।
कर्ज का बोझ जब असह्य हो गया। पेंशन ऊंट के मूंह में जीरा सी थी। ब्याज बढ़ता जा रहा था। तो अंततः उसके बाबू जी ने मकान बेचने का निर्णय ले लिया कि इससे कर्ज भी निपट जाएगा और झूमर की शादी भी किसी तरह हो जाएगी। और खुद पति-पत्नी पेंशन के सहारे किसी वृद्धाश्रम में जीवन बिताएंगे। लेकिन ऐसी कठिन स्थिति में दोनों बहनों और जीजा लोगों ने स्थिति संभाल ली। इतना ही नहीं दोनों ने मिल कर झूमर की शादी का खर्च उठाने की बात भी कह दी।
बदले में उसके बाबू जी ने अपनी सारी प्रापर्टी अपनी तीनों लड़कियों में ही बराबर-बराबर बांटने की वसीयत करनी चाही। लड़के को उसकी बदतमीजी के कारण पूरी तरह से बेदखल कर देने का निश्चय किया। लेकिन फिर तीनों बहनों ने मिल कर उसका भी हिस्सा लगवा दिया। इस बीच एक काम और हुआ। ट्यूशन, काम की तलाश के बीच झूमर ने एम.कॉम कर लिया।
जहां भी पता चलता नौकरी के लिए आवेदन करना ना भूलती। मगर हर जगह निराशा मिलती। इस बीच एक दिन उसकी मंझली दीदी के देवर आए और एल.आई.सी. एजेंट बनने की बात कही। झूमर ने कहा ‘यह काम मुझसे नहीं हो पाएगा। लोगों से परिचित नहीं हूं।’ लेकिन वह ऐसे पीछे पड़ गए कि अंततः इसका एक्जाम दिलवा कर माने। झूमर उसमें पास हो गई। प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया। जिसके बाद उसमें कांफिडेंस बढ़ गया। दीदी के देवर रवीश के जरिए ही पहली पॉलिसी भी बेची। जल्दी ही यह काम उसको समझ में आ गया।
रवीश के कारण काम आसान हो रहा था। जिसको पॉलिसी बेचती उसी से उसके मित्रों, रिश्तेदारों के नंबर लेकर वहां पहुंच जाती। छः सात में से एकाध कंविंश हो ही जाता था। इस तरह उसकी एक अंतहीन चेन बन गई थी। साल भर में उसका बिजनेस इतना बढ़ चुका था कि हर महीने उसका कमीशन पंद्रह से बीस हज़ार बनने लगा। घर की हालत काफी हद तक सुधर गई। मां-बाबूजी की सेहत कुछ सुधर गई। इसका पूरा श्रेय झूमर रवीश को अब भी देती थी। साल बीतते-बीतते झूमर खुद इस फील्ड में इतना आगे निकल चुकी थी कि रवीश की मदद की ज़रुरत नहीं रह गई थी। लेकिन फिर भी बहुत सी जगह वह साथ जाता रहा।
बहुत बातूनी हंसमुख रवीश रिश्ते के चलते हंसी मजाक भी कई बार खुले करता था। तो भी वह बुरा नहीं मानती थी। हंसी-मजाक में अक्सर हाथ वगैरह भी पकड़ लिया करता था। उसकी बाइक पर जब पीछे बैठ कर चलती थी तो शुरू में तो कभी-कभी लेकिन फिर वह हमेशा ही दाहिने हाथ से बाइक की हैंडिल छोड़ कर अपना हाथ पीछे कर उसका हाथ अपनी कमर के गिर्द पकड़ा देता था। वह मना करती तो कहता ‘पकड़ लो यार नहीं तो बाइक भिड़ा दूंगा।’ फिर कुछ दिनों बाद तो जैसे यह झूमर की आदत में आ गया था। बाइक चलते ही उसका हाथ स्वतः ही उसे जकड़ लेता था।
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